एक सोच, एक राह:- ‘मैं’ नहीं, हम बनिये
अरुणिमा मिश्रा,सचिव, आश्रयनिष्ठा वेलफेयर सोसायटी बिलासपुर छत्तीसगढ़

*एक सोच, एक राह:- ‘मैं’ नहीं, हम बनिये*
*अरुणिमा मिश्रा,सचिव, आश्रयनिष्ठा वेलफेयर सोसायटी बिलासपुर छत्तीसगढ़*

मरूधर विशेष
राकेश कुमार बंसल छत्तीसगढ़

आत्म विकास या कहे कि आत्म मोक्ष का स्तर आध्यात्मिक रूप से भी मनोवैज्ञानिक रूप से भी मानव जीवन का श्रेष्ठतम व एकमात्र लक्ष्य माना जाता रहा हैl इसके लिए एक इंसान अलग-अलग तरह से अलग-अलग उपाय भी करता रहता हैl
समकालीन परिस्थितियों में मनोविज्ञान ने व्यक्ति को एक मंत्र दिया ‘मैं’। इसमें कहा गया कि ‘मैं’ (अपने बारे में) के विषय में सोचो, जो ‘मैं’ करना चाहूँ वो करूँ, जिसमें मुझे (मैं) को ख़ुशी मिले वो करो आदि-आदि। ऐसा कहा गया कि अगर व्यक्ति अपने आप को खुश रखेगा तो उसके आस-पास की दुनिया खुशनुमा बन जायेगी।
लोगों ने खुश रहने और अपने आस-पास की दुनिया को खुशनुमा बनाने के लिए इस विचार का, इस सोच का अनुकरण करना शुरू कर दिया। एक बार को लगा कि हमारा समाज सच में विकास के मोक्ष के लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा।
पर ये क्या ? ऐसा नहीं हुआ। ‘मैं’ को जीते-जीते लोग हम को ‘भूल’ गए। लोग खुद पर और खुद ही पर इतना अधिक विश्वास कर जीने लगे कि उन्होंने दूसरों की आवश्यकता को, उनके होने को ही नकार दिया।
हर व्यक्ति के अपने दायरे बन गए। इन दायरों में सबसे पहले बाहर हुए पास-पड़ोस के लोग, फिर परिवार के निकट रिश्तेदार और अब एक ऐसा समय आ गया हैं जब अपने सगे भाई-बहन भी इस दायरे से बाहर जा रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया में व्यक्ति सामाजिक रूप से अकेला हो गया है। ये एकाकीपन ‘मैं’ को भरपूर जीने का उपहार है। जिसके साथ डिप्रेशन मुफ्त मिलता है।
भारतीय मनोवैज्ञानिक संस्थान के नवीन शोध बताते हैं कि प्रत्येक 100 में से एक व्यक्ति किसी न किसी रूप में डिप्रेशन का शिकार है। इससे बाहर आने के लिए वो खुद को खुश रखने के लिए ‘मैं’ पर ही काम करता है और एक चक्रव्यूह में फँस जाता है। ये किसी एक इंसान की बात नहीं है वरन दुनिया का हर आदमी आज ‘मैं’ और ख़ुशी के जाल में फँसा है।
सामाजिक समरसता को जैसे सब भूल ही गए हैं। एक धारणा सी बन गई है कि समाज में दुःख है। चाहे वो समाज परिवार का हो या परिवार से बाहर। इसलिए ‘मेरी ख़ुशी’, ‘मेरा अधिकार’, ‘मेरा घर’, सब कुछ ‘मैं’। इस मैं को सलामत रखने के लिए अगर झूठ कहना पड़े तो ठीक है, अपनी बातों से मुकरना पड़े तो ठीक है, कोई दूसरा इंसान परेशान हो जाए तो कोई बात नहीं, मतलब सारी नैतिकताओं को किनारे पर लगा दिया जाता है।
कोई इंसानियत, कोई रिश्ता, कोई विश्वास महत्व नहीं रखता। महत्व है तो बस ‘मैं’ रहना चाहिए। यहाँ विचारणीय है कि यदि ‘मैं’ को ‘हम’ से अलग करके जीते रहे तो कोई विकास या मोक्ष नहीं मिलेगा बल्कि इंसान ‘कुंठित’ होकर रह जाएगा।
अत: प्रयास कीजिए, विश्वास करना सीखिए जिससे कि आप जुड़ कर रह सकें। ‘मैं’ नहीं हम बनिए।
याद रहे जीवन एक कण नहीं है बल्कि कणों का समूह है। पंच तत्वों के समन्वय से मनुष्य बना है। उसका विकास भी समन्वयता में निहित है।